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नीले घोड़े का सवार

राजेन्द्र मोहन भटनागर

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1516
आईएसबीएन :81-7028-049-4

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प्रस्तुत है महाराणा प्रताप के जीवन पर आधारित उपन्यास..

Nile Ghore ka Savaar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘नीले घोड़े का सवार’ सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यासकार डॉ. राजेन्द्रमोहन भटनागर कृत प्रायः स्मरणीय महाराणा प्रताप को लेकर लिखा गया अन्यतम उपन्यास है। यह उपन्यास अनवरत शोध का परिणाम है। आपको बहुत कुछ नया ज्ञात हुआ और नये की स्थापना करना अत्यन्त आवश्यक हो गया।
यह उपन्यास न केवल अपने समय का जीवित दस्तावेज है अपितु तत्कालीन जनजीवन की सामाजिक, आर्थिक और आंशिक रूप से धार्मिक स्थिति को समझने में मदद करनेवाला ग्रन्थ है। इसके द्वारा महाराणा प्रताप का एक सर्वथा जीवन्त मानवीय चरित्र सामने आता है।
कथाकार ने इतिहास का सार्थक उपयोग किया है। कथा में रोचकता की वृद्घि हुई है और सांस्कृतिक-सामाजिक सरोकारों को ज्यादा सार्थकता हासिल हुई  है।

‘आजकल’

लेखक ने एक ओर इतिहास रस का परिपाक किया है तो दूसरी ओर रचना के माध्यम से प्रताप के जीवन-संघर्ष का उदात्तीकरण भी किया है।

‘नया शिक्षक’

* ‘घनश्यामदास सर्राफ सर्वोत्तम साहित्य पुरस्कार’ से सम्मानित

राणाए ते दिन अते,
पण जगते जोयो त्हेनी,
नथ भारत जन कदी भुल्यां
सहु स्मरे प्रताप अने ते।

हल्दी घाटी नुं युद्ध
मृगेश्वर का ताम-पत्र
महाराजधिराज महरा-
रण श्री प्रताप स्यंघजी आदे
सातु चारण कान्हा हे गाम
मीरघेसर दत्त मया कीधो
आघाट करे दीधो संवत् 1639 वर्षें
फागुण सुदी 5 दुए श्री
मुख वीदमान साह भामाशाह।।1
गहलोत राण जीत गयो दसण मूंद रसणा उसी।
नी सास मूक भरिया नयन तो मृत शाह प्रताप सी।।2

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1.    इस तामपत्र में सप्त पंक्तियां हैं। इससे पता चलता है कि महाराणा प्रताप के आदेश से, भामाशाह द्वारा कान्ह चारण को फाल्गुन शुक्ला 5 संवत् 1639 को मीरघेसर (मृगेश्वर) गांव प्रदान किया।
2.    मुगल दरबार के प्रसिद्ध चारुण कवि दरसा डोढ़ा ने यह भाव अकबर की मनःस्थिति को समझकर व्यक्त किए थे, ‘ओ प्रताप ! तेरी मृत्यु पर बादशाह अकबर ने दाँतों के बीच जिह्वा दबायी और निश्वास छोड़े। उसकी आंखें भर आईं। गहलोत राणा तेरी ही जय हुई।

यह उपन्यास......


यह उपन्यास प्रातः स्मरणीय महाराणा प्रताप के ओजस्वी और देदीप्यमान जीवन पर आधारित है। आज के तेजी से ध्वस्त होते जीवन-मूल्यों के लिए इसकी आवश्यकता है। स्वतंत्रता संघर्ष अनुरत धर्म है। यही हर व्यक्ति का कर्म है। इसी धर्म-कर्म के कारण पृथ्वीराज राठौड़ ने महाराणा प्रताप सिंह को पत्र लिख कर पूछा था-
एकलिंग की सृष्टि के व्यवस्थापक (दीवाण), मुझे दो में से एक बात लिख दो-मैं अपनी मूछों पर स्वाभिमान के हाथ फेरूं अथवा अपनी देह को स्वयं ही ही तलवार से काट डालूँ।1

यही प्रश्न आज भी है परन्तु आज के पीथल2 के सामने पातल3 नहीं है। यह प्रश्न हर युग में हर क्षण बना रहेगा। जो जाति स्वतंत्रता और स्वाभिमान का अर्थ समझती है, वह जाति सदा इस प्रश्न को अपने में संजोये रहेगी।
इस प्रश्न का उत्तर पातल ने दिया-‘‘पृथ्वीराज रठौड़, तुम सगर्व मूंछों पर ताव दो। सूर्य तो सदा पूर्व से ही उदित होगा।’’
दरअसल यह विवाद उस समय उठा जबकि बादशाह ने पृथ्वीराज राठौड़ को महाराणा प्रताप का वह पत्र दिलवाया जिसमें उन्होंने दिल्लीपति अकबर की स्वाधीनता स्वीकार कर ली थी। पृथ्वीराज रठौड़ ने इस पत्र को नकली बतलाते यह सुझाव दिया था कि  इस संबंध में महाराणा प्रताप से पूछ लिया जाए। हालांकि इसकी ऐतिहासिकता अभी तक संदिग्ध बनी हुई है तथापि इस पत्र की मार्मिकता और प्रेरणा शाश्वत है।

 इस प्रकार के अनेकानेक प्रसंग हैं जिनसे महाराणा प्रताप के संबंध में आज भी विवाद बना हुआ है। इसका प्रमुख कारण है—महाराणा प्रताप का तत्कालीन समाज के जन-जन के मन में प्रतिष्ठित होना। इतिहास घटना-क्रम और इतिवृत्तात्मक कथा मात्र नहीं है। इतिहास जीवन है और जीवन के प्रत्येक क्षण का स्पन्दन है। प्रताप के समय का इतिहास ऐसा ही था।
1. पटकूं मूंछां पाण, कै पटकूं निज तन करद।
दीजे लिख दीवाण, इण दो महली बात इक।।
2. पृथ्वीराज राठौड़ कवि
3. महाराणा प्रताप सिंह
महाराणा प्रताप के सम्बन्ध में जितनी चर्चाएं प्रचलित हैं, उतनी कदाचित् किसी अन्य युग पुरुष के सम्बन्ध में नहीं हैं। एक तरफ इतिहास है जो पुष्ट प्रमाणों पर खड़ा हुआ है और दूसरी ओर जन-मानस में व्याप्त गाथाएं हैं। हाजी मोहम्मद आरिफ कंधारी कृत ‘तारीख-ए-अकबरी’ में तत्कालीन इतिहास है। लेकिन हैं उसमें भी संदिग्धताएं। ‘आइने-अकबरी’ व ‘‘अकबरनामा’ भी संदिग्ध है। दूसरी ओर तत्कालीन साहित्य है, ख्यात हैं, कहावतें हैं इत्यादि। कहावतों में
छिपे इतिहास की बानगी प्रस्तुत है-
भाभो परधानो करे, रामो कीदो रद्द। 
घरची बाहर कारण तूं, मिलियो आय मरद्द।।

‘खुम्माण रासो’ के अनुसार भामाशाह अहमदाबाद से दो करोड़ का धन लेकर आया था-
कप्पड़ पीया कापड़ा, ली दो धन दो कोड़1

मैंने उस युग को समझने के लिए ‘दलपत बिलास’ , ‘राणा रासो’, ‘राज प्रकास’, ‘खुमाण रासो’, ‘पतायण’, ‘सीसोदिया री ख्यात’, ‘राणा प्रताप की बात’, संथाणा, पीपली, मही, बांधण, मृगेश्वर, डाइलाणा, पडेर के ताम्रपत्र, देलवाड़ा का पट्टा, रक्ततताल, सूरखण्ड के शिलालेख, परवाना आदि का भी अध्ययन किया है और इसके साथ जनश्रुतियों में छिपे मन्तव्य का विश्लेषण भी किया है। तत्कालीन तथा बाद में लिखे गये इतिहास को ध्यान से पढ़ा है और इन सबसे कुछ निर्णय लिये हैं। इसके बाद में लिखे गये इतिहास को ध्यान से पढ़ा है और इन सबसे कुछ निर्णय लिये हैं। इसके अतिरिक्त वसन्त कृत ‘मेवाण नी संध्या’ ना. वि. ठक्कर कृत ‘हल्दी घाटी नुं युद्ध’2 पणपतराम राजाराम भट्ट कृत ‘प्रताप’3 तथा गुजराती भाषा में प्रताप विषयक दो इतिहास ग्रंथ4 आदि ग्रंथों का भी अध्ययन किया। यों तो महाराणा प्रताप पर अनेक, भाषाओं में ग्रंथ उपलब्ध हैं, फिर भी बहुत कुछ कहना शेष है और प्रताप को नवीन तथा युग संदर्भ में सर्वथा सप्रमाण प्रस्तुत करने की भी आवश्यकता है।

प्रमाण जुटाना आसान काम नहीं है। साथ ही, प्रमाण की परख की भी ज़रूरत है। अभी तक अनेक हस्त लिखित ग्रंथ पुस्तकालय, प्रतिष्ठानों और विद्वानों के पास पड़े हुए हैं। जैसे एक प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथ में हल्दी घाटी युद्ध विषयक विविरण निम्न प्रकार से है-
‘‘राजा रामशाह तुंअर, गुआलेर रौ धणी महाराणाजी श्री प्रताप सींघ जी कनै था। सो विषामाहे रुपईया 800 रोज 1 करोड़ पावता। हलदी री घाटी बेढ़ 1 तठै कांम आया। सं. 1632 श्रावण वदि 7 राणौ प्रताप सींघ जी कछवाहों मानसींघ सुं बेढ़ तिण माहं काम आया। सोनिगरौ मोनसींघ अवैराजोत 1 राठौड़ रामदास जैतमालोत 2 राजा रॉमशाह ग्वालैर रौ धनी 3 डोडीयो भीम साडांवत 4 पडिहार संढु 5 सादू रामो धरमावत 6।’’5
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1-2. गुजराती के उपन्यास
3. नाटक (गुजराती भाषा में)
4. ‘मेवाड़ना अणमोल जवाहिर’ तथा ‘मेवाड़ नी जाहोजलाली’ (वैभव)
5. राजस्थान प्रच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में सुरक्षित, हस्तलिखित ग्रन्थ क्रमांक 3, पृ० 464
ध्यातव्य है कि सभी प्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रंथों में हल्दीघाटी युद्ध के समय विक्रमी संवत्  1633 द्वितीय ज्येष्ठ शुक्ला 2 माना गया है, जबकि इसमें विक्रमी  सम्वत् 1632 श्रावण कृष्ण 7 बताया गया है।

हल्दीघाटी युद्ध के बाद आर्थिक कठिनाइयों का सामना करने के लिए महाराणा प्रताप के प्रधानमंत्री भामाशाह ने सैनिक व्यय की उचित व्यवस्था की थी। इस संबंध में इस ग्रंथ में लिखा गया है-
‘‘राणा जी श्री प्रताप सींघ जी नौ विषमाहे पाति साहसी री फौज जोर दबाया। षवणा नौ क्यूं ही पहूंचै नहीं। तद दीबाणजी कहयो। हूं अहमदनगर रै पाति साह तीरे जासा। तरै सा भामै कहयो। बारा वरस ताईं पाँच हजार घोड़ा नौ तेत नै बावरण ताइ चाहीजसी। सौ हुं दावें ही तठा सुं सुं। दीवाण इसी मत विचारौ। ’’1
जहाँ तक मतभेद और संपुष्ट प्रमाण की बात है, वहां तक ‘अकबरनामा’, ‘रावल राणा जी री बात’, ‘राजरत्नाकर’, ‘तबकाते अकबरी’, ‘मुन्तरव्ब-उत तवारीख’, ‘इकबालनामा-ए जहांगीरी’, ‘मिराते-अहमदी’, राजप्रकाश। (हस्तलिखित ग्रंथ) ‘वीर विनोद’, अमर काव्य’, ‘जगदीश मंदिर प्रशस्ति’ आदि में परस्पर अन्तर है। ‘अकबरनामा’ में लिखा है कि गोगुंदा पहुंचने पर मानसिंह का प्रताप ने स्वागत किया और अकबर द्वारा भेजी गई खिल्लत धारण की,-

यह तथ्य अमान्य है। यह तथ्य भी गलत है कि प्रताप ने राजा भगवानदास के साथ अकबर के दरबार में अपने पुत्र अमरसिंह को भेजा था। ‘नैणसी री ख्यात’ व ‘राजरत्नाकर’ में मानसिंह तथा प्रताप के बीच मनोमालिन्य हुआ था, यह दरसाया गया है। श्री ओझा ने जहाँ इस तथ्य को स्वीकारा है वहां डा.गोपीनाथ शर्मा ने इसे काल्पनिक माना है। यही बात हल्दीघाटी युद्ध के बारे में है। फारसी इतिहासकार बदायूनी ने इस युद्ध की निश्चित तारीख नहीं दी है और इसे खमनोर युद्ध से पुकारा है, जबकि अबुल फज़ल ने इसे गोगुन्दा का युद्ध कहा है। डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव,2 यदुनाथ सरकार3 आदि ने इसे 18 जून, 1576 सोमवार को इस युद्ध का होना स्वीकार किया है, जबकि श्रीराम शर्मा4 तथा डॉ. गोपीनाथ शर्मा5 ने 21 जून, 1576 को इस युद्ध का होना माना है। टॉड कृत ‘एनाल्स एण्ड एंटी क्विटीज आफ राजस्थान’ में अनेक भ्रामक तथ्य दिये गये हैं इस प्रकार तथ्यों का संघर्ष आज तक बना हुआ है। इसमें मेरा यह प्रयास रहा है कि तत्कालीन तत्वों को प्रकाश में लाया जाये। प्रताप का जीवन संघर्ष की आत्मकथा है, इसमें कोई मतभेद नहीं है। मेरी दृष्टि में यह महाचरित्र केवल मेवाड़ या हिन्दुस्तान तक सीमित नहीं है अपितु हर देश से सम्बद्ध है। उस देश से जो आज़ादी में विश्वास करता है, और आज़ादी की कीमत समझता है। मैंने इसी दृष्टि को ही इस उपन्यास का मेरुदण्ड बनाया है। मुझे विशश्वास है कि आप इस कृति को अपनाकर अपना जीवन स्नेह मुझे देंगे।–राजेन्द्र मोहन भटनागर

1. राजस्थान प्रच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में सुरक्षित, हस्तलिखित ग्रंथ क्रमांक 35464
2. अकबर द ग्रेट जि. 1, पृ. 206-7
3. मेडीवल हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, पृ. 77
4. महाराणा प्रताप, पृ. 26
5. मेवाड़ एण्ड दी मुगल एम्परर्स, पृ. 86-87
नागिन-सी काली रात ! अजगर-सा सांस रोके सन्नाटा। अरावली की पर्वत श्रेणियों में गुप्तचर-सी टोह लेती निश्शब्द हवा। घने बादलों का आकाश में छावनी की तरह छा जाना। रह-रहकर प्रहरियों-सा बिजुरी का कौंध कर ओझल हो जाना। यदा कदा तेज़ गर्जना के साथ बिजुरी का समस्त घाटी और वन-प्रदेश को आतंकित करना।
इस समय अरावली तपस्वी-सी लग रही थी। लग रहा था कोई शैतान उसकी तपस्या भंग करने का प्रयास कर रहा है।
कड़ाके की ठण्ड। सोमवार की रात। दुर्भाग्य की रात। महाबली अकबर चार महीने से चित्तौड़ के किले का घेरा डाले हुए था। वह माण्डलगढ़ से यहाँ पहुंचा था। वह सोच रहा था कि आम्बेर के राजा भारमल की तरह मेवाड़पति महाराणा उदयसिंह भी उसकी अधीनता स्वीकार कर लेगा।

राणा उदयसिंह के छोटे भाई शक्तिसिंह ही ने तो यह समाचार दिया था कि अकबर चित्तौड़ पर आक्रमण करने आ रहा है। अकबर के साथ विशाल सेना है। राजस्थान के अनेक नरेश अकबर की आधीनता स्वीकार करते जा रहे थे। उनमें अनेक अपनी बहिन या पुत्री का विवाह अकबर से करके अपने को गौरवान्वित समझ रहे थे। शक्तिसिंह भी तो अपने बडे़ भाई उदयसिंह से नाराज होकर ही अकबर की शरण पहुंचा था।
‘‘रसद लगभग समाप्त हो चली है। कहीं से रसद प्राप्त होने का भी कोई संकेत नहीं है। अब इसके अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं है कि गढ़ का द्वार खोलकर खुले मैदान में अकबर का सामना किया जाए।’’ जयमल मेड़तिया ने घने अंधकार को चीरते हुए कहा।

मशाल के प्रकाश में गहराया व महाअंधकार और भयानक हो चला था।
‘‘राणा को चित्तौड़ छोडने के लिए विवश करना ही पड़ेगा।’’ पत्ता सीसो-दिया ने गहरी सांस छोड़ते हुए मद्धिम स्वर में कहा।
‘‘यह सब अकबर विरोधी मालवा के बाज बहादुर को शरण देने के कारण हुआ है।’’ शक्तिसिंह  कह रहा था, ‘न भैया उसे शरण देते और न मेवाड़ पर यह संकट मंडराता।’......लेकिन अब तो एक ही रास्ता रह गया है कि भैया चित्तौड़ छोड़ दें।’’
इसी समय ज़ोर से बिजुरी चमकी। जयमल मेड़तिया ने कहा, ‘‘मेवाड़ को यह दिन भी देखना था। काश ! खानुवा के युद्ध में राणा सांगा न हारते। दसेक घण्टे के इस युद्ध ने भारत का भाग्य ही बदल डाला।’’
‘‘जो होना था, वह हो चुका। उसे याद करने से कोई लाभ नहीं। अब तो राणा को समझा-बुझाकर चित्तौड़ छोड़ने के लिए राजी करना होगा।’ पत्ता सीसोदिया सोचते हुए कह रहा था, ‘‘रसद खतम हो चली है। अब युद्ध ही एक मात्र रास्ता है।’’
‘‘समझौता। शक्तिसिंह ने धीमे से कहा।
‘‘असम्भव !’’ सबने पीछे मुड़कर देखा। पीछे राणा उदयसिंह खड़े हुए थे।
सबने उनका अभिवादन किया। उदयसिंह ने पूछा, ‘‘शक्तिसिंह, तुम फिर यहां ?’’
‘‘भैया....!’’
‘‘मुझे गाली न दो, शक्तिसिंह।’’

‘‘आपको शत्रु की शक्ति का अनुमान नहीं है, भैया !’’ शक्तिसिंह ने गरदन झुकाये हुए कहा।
‘‘हमें मर्यादा का अनुमान है, शक्तिसिंह ! हम क्षत्री हैं। हमें अपने उत्तरदायित्व का मान है। हमें क्या करना है, यह हम अच्छी तरह से जानते हैं। तुम अपने शरणदाता को परापर्श दो, हमें तुम्हारे परामर्श की आवश्यकता नहीं है।’’
‘‘यह समय तर्क का नहीं है, महाराणा !...हम सबकी यह राय बनी है कि इस समय आपको चित्तौड़ छोड़कर जाना ही होगा। अन्यथा मेवाड़ का सूर्यास्त निश्चित है।, यह सच है कि हम अकबर का मुकाबला नहीं कर सकेंगे। मेवाड़ की स्वतन्त्रता के लिए यह जरूरी है कि आप सपरिवार चित्तौड़ से सुरक्षित निकल जाएं। आप रहेंगे तो स्वतन्त्रता का दीप कभी बुझ नहीं पाएगा। इसके लिए सदा युद्ध चलता रहेगा। यह युद्ध आज से नहीं तब से चल रहा है, जब से इस पवित्र भूमि को म्लेच्छों ने रोंदना शुरू किया है। महाराणा सांगा की प्रतिज्ञा का स्मरण है ? उनको विष नहीं दिया गया होता तो वे बाबर से एक बार और युद्ध के मैदान में आमने सामने होते है और उसे इस देश से बाहर खदेड़ देते !...लेकिन ....हाय। बसक का वह अभागा स्थान जहां महान् राणा ने हमेशा-हमेशा के लिए आंखे मूद ली थीं।’’ पत्ता सीसोदिया का स्वर समतल भूमि पर तेज़ दौड़ते घोड़े की टाप-सा पड़ रहा था। पत्ता का चेहरा तमतमा उठा था। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों से स्फुलिंग निकल रहे थे।

राणा उदयसिंह वस्तु स्थिति को समझ रहे थे। वह ठीक से कोई निर्णय नहीं कर पा रहे थे। वह जान रहे थे कि इस युद्ध का परिणाम उनके पक्ष में नहीं होना है और अकारण वह अपने उद्भट सैनिकों के साथ खेत रहेंगे। बिना युद्ध किये भाग खड़े होना मेवाड़ की मर्यादा के भी तो विरुद्ध है।
जयमल मेड़तिया राणा उदयसिंह के अन्तर्द्वन्द्व का अनुभव कर पा रहा था। वह राणा को द्विविधा से मुक्त करते हुए कहने लगे, ‘‘युद्ध होगा, राणा ! घमासान युद्ध होगा। ऐसा घमासान युद्ध जिसे शत्रु कभी नहीं भूल सकेगा। आप हमारा विश्वास कीजिए और इस युद्ध का भार मेरे तथा पत्ता सीसोदिया पर छोड़िए।’’
‘‘हां महाराणा, एक अवसर हमें भी दीजिए।’’ पत्ता ने कहा।
‘‘मैं भी आपके साथ रहूंगा।’’ राजकुमार प्रताप ने साभिवादन प्रवेश करते हुए कहा, ‘‘राणा  परिवार का भी प्रतिनिधित्व रहना चाहिए।’’

‘‘क्या आप हमें अपने परिवार में नहीं समझते हैं।....आपकी मेवाड़ के भविष्य को ज़रूरत है।’’
‘‘मेरी भविष्य को नहीं वर्तमान को ज़रूरत है।’’ प्रताप में अन्तर्दाह की लपटें आकाश छूने लगी थीं। वह कितने चाव से कुम्भलमेर से चित्तौड़ आया था। सिवाय उपेक्षा और अपमान के उसे चित्तौड़ आकर क्या मिला ! उसके ठहरने की व्यवस्था चित्तौड़ किले की तलहटी में स्थिति एक गाँव में की गई थी। उसके साथ मात्र दस राजपूत रखे गये थे। वहां उसे भोजन सामग्री दी जाती थी, वह बहुत कम थी। इतनी कम की कई बार उसे अर्द्ध पेट भर ही सोना पड़ता था। उदयसिंह सदा उपेक्षा की दृष्टि से देखते थे। फिर इससे अच्छा अवसर उसे कब मिलेगा। इस वक्त उसे कुछ कर दिखाने का अवसर मिल रहा है। वह यहाँ से नहीं जाएगा। शत्रु का सामना करेगा।

उदयसिंह को एक बार पहले भी चित्तौड़ से दुम दबाकर भागना पड़ा था। तब शेरशाह सूरी चित्तौड़ पर चढ़ आया था। उसका सामना करने की शक्ति उदयसिंह में नहीं थी। यदि शेरशाह सूरी की मृत्यु नहीं हुई होती तो पुनः सिसोदिया वंश की पताका नहीं फहरा सकती थी। एक बार उसने विजय अभियान शुरू किया तो वह बूंदी तथा रणथम्भोर को रौंद गया। वह मेवात के शासक हाजी खां से पराजित नहीं हुआ होता तो उसका यह विजय अभियान कभी  नहीं रुकता। विजय-मद व्यक्ति को वास्तविकता से बहुत दूर ले जाता है। पराजित होकर उसका ध्यान अपने राज्य की सुरक्षा और समृद्धि की ओर गया। उसने उदयपुर नगर तथा बेडच नदी पर उदयसागर की नींव रखी। उसे क्या पता था कि इतनी जल्दी फिर उसके सामने महासंकट आ जाएगा और एक बार फिर चित्तौड़ से भागना पडे़गा। आज उसे अपनी असहाय स्थिति पर रोना आ रहा था। बाहरी आक्रमण उन्हें अपनी धरती पर स्वाभिमान और गौरव से नहीं रहने दें और उसके जीने का अधिकार छीन लें। ओह ! यह कैसा अभिशाप है।

कहां हमीर ! कहां कुम्भा ! कहां सांगा ? उसकी आंखों के सामने कीर्ति-सतम्भ था। ओह ! उसका सिर चकराने लगा।
आठ-नौ दिन पहले की बात है। एकालिंगजी से लौटते हुए आहाड़ गांव की ओर आखेट के लिए गया था। पहाड़ों से घिरा पीछोला तालाब उसके में बस गया। उसे क्या पता था कि वहां उसे अपने प्राणों की रक्षार्थ आना पडे़गा। गोगुन्दा जो सभी ओर से अरावती पर्वत की ऊँची श्रेणियों से घिरा हुआ है, अब उसकी शरण स्थली बनेगा। कुम्भलमेर दुर्गम दुर्ग रह जाएगा। उसने एक बार भीगे नेत्रों से चित्तौड़ के अजय किले की ओर देखा। चार माह से अकबर चित्तौड़ किले का घेरा डाले हुए है। कभी गुजरात-मालवा के सुल्तान बहादुरशाह ने चित्तौड़ किले का घेरा डाला था। कोई पैंतीस वर्ष पूर्व। हुआ यह कि हाड़ी रानी कर्मवती को विवश होकर उससे संधि करनी पड़ी। परन्तु सुल्तान बहादुरशाह के मन से चित्तौड़ किले पर आधिकार करने की बात नहीं निकली। उसने फिर आक्रमण किया। इस बार हाड़ी रानी कर्मवती पराजित हुई। ओह ! पराजय....पराजय।.....भागना ही भागना। यह कैसा अभिशाप है।

जयमल राणा उदयसिंह की चुप्पी का अर्थ समझ रहा था। वह कहने लगा, ‘‘राणा आप अधिक सोच विचार न करें। आप यहां से निकल जाएं। मेवाड़ की रक्षा के लिए यही जरूरी है।’’
‘‘परन्तु सामन्त जयमल यह बहुत लज्जास्पद बात होगी।’’ उदयसिंह ने जयमल की ओर देखते हुए कहा। जयमल के चेहरे पर तेज था। उसकी आँखों में ज्वालामुखी मचल रहा था। जयमल बिदनौर का राजा था। वह मेवाड़ के शूरवीर सामन्तों में से एक था। वह कहने लगा, ‘‘वर्तमान स्थिति में यही अनुकूल है। प्रश्न मेवाड़ के अस्तित्व का है।’’
‘‘सुना है समाचार मिल भी रहे हैं कि चित्तौड़ की रक्षा के लिए मेवाड़ राज्य के सभी सामन्त और राजा ससेना इधर आ रहे हैं।.....मरेरिया के राजा दूदा, बेदला और कटारिया के सामन्त...बिजोली के परमारों और मादी के झाला राजा की सेनाएं जालौर नरेश सोनगढ़ का राव...चंदावंश की सेना लेकर शालुम्ब्रा का राजा शूरवीर चन्द्रावत सहीदास... करमचन्द्र कछवाहा आदि सभी आ रहे हैं। ऐसी स्थिति में हम भाग खड़े हों। ओह ! उदयसिंह की आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा।        

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